हूँ खण्डित फिर भी हूँ अक्षर
हूँ नश्वर फिर भी अजर-अमर
सदियों से चलता आया, हूँ मैं
पाप पुण्य का महासमर।
हूँ धरा की प्यास भी
हूँ बरखा का विलास भी
हूँ प्रसव की विकट वेदना
हूँ शैशव का उल्लास भी।
हूँ मृत्यु का करुण रुदन
हूँ बसंत का फाग भी
हूँ लिये हृदय में साथ साथ
मैं राग भी, विराग भी।।
The clocks are not in unison; the inner one runs crazily on at a devilish or demonic or in any case inhuman pace, the outer one limps along at its usual speed. What else can happen but that the worlds split apart, and they do split apart, or at least clash in a fearful manner.
~ Franz Kafka